Saturday, September 17, 2011

देशज परंपराओं की विदाई

आलोक सिंह राजपू‌त

Story Update : Friday, September 09, 2011    10:33 PM
बुंदेलखंड की आर्थिक स्थिति भले ही विपन्न हो, यहां के किसान और मजदूर मानसिक रूप से बहुत संपन्न हैं। आज बुंदेलखंड की सबसे बड़ी समस्या खत्म होती चौपाल की परंपरा और युवाओं का बुजुर्गों के ज्ञान से मुंह मोड़ लेना है। किसानों के ज्ञान को न तो गंभीरता से लिया जा रहा है और न ही उसमें अनुसंधान की प्रवृत्ति जोड़ी जा रही है। देशज ज्ञान को महत्व न मिलने के कारण भी किसान भुखमरी और अकाल के कगार पर खड़ा है, जबकि हमारे पूर्वजों में ज्ञान से विचार, विचार से जुगाड़, जुगाड़ से आविष्कार और आविष्कार से रोजगार का प्रचलन रहा है। आज हर किसान के पास कोई न कोई नुसखा जरूर है, लेकिन उस नुसखे पर अनुसंधान की क्षमता उसके पास नहीं है। यही किसान की बरबादी का असली कारण है।

हाइब्रिड बीजों और रसायन के इस्तेमाल के बजाय तुलनात्मक रूप से कम लागत पर उपलब्ध देशज बीजों से किसान दोगुनी पैदावार उपजा सकता है, लेकिन उसके पास ज्ञान और तकनीक विकसित करने का साधन नहीं है, क्योंकि किसान शिक्षित नहीं है, फिर बहुराष्ट्रीय कंपनियां जो बीज बाजार में उतार रही हैं, उनसे भी किसानों को कड़ी चुनौती मिल रही है। जब हमारे यहां बहुराष्ट्रीय कंपनियों का प्रभाव नहीं था, तब सरकारें किसानों के देशज ज्ञान का महत्व समझती थीं और सरकारी जमीन पर महुआ, आम, पीपल और बरगद के पेड़ गरीब और किसान की आवश्यकता के अनुसार लगाए जाते थे, ताकि अकाल जैसी स्थिति में मनुष्य और जानवरों की भूख मिटाने का कुछ न कुछ इंतजाम बना रहे। लेकिन अब हम बहुराष्ट्रीय कंपनियों के जाल में फंसकर यूकिलिप्टस, विलायती बबूल और पॉपलर जैसे विदेशी पेड़ लगा रहे हैं, जो मनुष्य तथा प्रकृति, दोनों के साथ शत्रुतापूर्ण व्यवहार करते हैं। ये पेड़ छायादार और फलदार तो नहीं ही हैं, उलटे इनकी पत्तियों से तेजाब निकलता है, जो जमीन को ऊसर बनाता है। यूकिलिप्टस का एक पेड़ 24 घंटे में 425 लीटर पानी सोखता है।

जैविक खेती हमारे पूर्वजों द्वारा खोजी और परखी गई देशज ज्ञान पर आधारित वह खेती है, जो हमें सीधे प्रकृति से जोड़ती है। लेकिन मैकाले की शिक्षा पद्धति और पश्चिमी मॉडल अपनाने के कारण आज हमें जैविक खेती पिछड़ी हुई लगती है। मटका खाद, सींग की खाद, बर्मी कंपोस्ट, जैव उत्पाद रसायन, भूमि शोधन, बीज शोधन इत्यादि का ज्ञान हमारे पूर्वजों को रहा है। हमारे पूर्वज हाट व्यवस्था को बहुत महत्व देते थे, जिसमें उत्पाद बिना बिचौलिये के उत्पादक से उपभोक्ता को प्राप्त होते थे। हाट व्यवस्था से सामाजिक मेल-जोल भी स्थापित होता था। पर पाश्चात्य संस्कृति का देश में अंधानुकरण करने के कारण आज हाट व्यवस्था भी दम तोड़ रही है। विश्व व्यापार संगठन के हस्तक्षेप के कारण अब तो हमारे किसानों को बीजों के मामले में भी गुलाम बनाया जा रहा है। उन पर ऐसे बीजों के इस्तेमाल का दबाव बनाया जा रहा है, जो मात्र एक बार ही प्रयोग होते हैं और जिसमें पानी तथा रासायनिक खाद अधिक लगता है। इससे जमीन ऊसर हो रही है।

हमारे पूर्वजों को पर्यावरण, जल और वन संरक्षण में भी विशेष योग्यता हासिल थी। विभिन्न उपायों से वे इनकी रक्षा करते थे। जंगलों में रहनेवाले आदिवासी प्रसव के दौरान एक पेड़ की छाल का उपयोग करते हैं। छाल निकालने से पहले उस पेड़ को दाल-चावल का न्योता देते, फिर उसकी पूजा करते, बाद में मंत्रोच्चारण के साथ कुल्हाड़ी से एक बार में जितनी छाल निकल जाए, उतने का ही दवा के रूप में इस्तेमाल करते। लेकिन आज सरकारों का उद्देश्य जंगल की रक्षा करना नहीं, बल्कि जंगल को बेचना है। खेती-किसानी से जुड़े फैसले भी वातानुकूलित कमरों में बैठे लोग करते हैं। यदि यही योजनाएं किसानों के बीच किसी बरगद के पेड़ के नीचे बैठकर बनाई जाएं, जिनमें पारंपरिक कृषि और स्थानीय प्रौद्योगिकी के साथ ग्रामीण स्तर पर चारा पैदा करने और मवेशियों की स्थानीय नस्लें पैदा करने पर सार्थक विचार-विमर्श कर ठोस पहल की जाए, तो बुंदेलखंड के किसान और मजदूर आत्महत्या के लिए विवश नहीं होंगे। 

source : http://www.amarujala.com/Vichaar/VichaarDetail.aspx?nid=1705&tp=b&Secid=4&SubSecid=6

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