आलोक सिंह राजपूत | |
Story Update : Friday, September 09, 2011 10:33 PM | |
बुंदेलखंड की आर्थिक स्थिति भले ही विपन्न हो, यहां के किसान और मजदूर मानसिक रूप से बहुत संपन्न हैं। आज बुंदेलखंड की सबसे बड़ी समस्या खत्म होती चौपाल की परंपरा और युवाओं का बुजुर्गों के ज्ञान से मुंह मोड़ लेना है। किसानों के ज्ञान को न तो गंभीरता से लिया जा रहा है और न ही उसमें अनुसंधान की प्रवृत्ति जोड़ी जा रही है। देशज ज्ञान को महत्व न मिलने के कारण भी किसान भुखमरी और अकाल के कगार पर खड़ा है, जबकि हमारे पूर्वजों में ज्ञान से विचार, विचार से जुगाड़, जुगाड़ से आविष्कार और आविष्कार से रोजगार का प्रचलन रहा है। आज हर किसान के पास कोई न कोई नुसखा जरूर है, लेकिन उस नुसखे पर अनुसंधान की क्षमता उसके पास नहीं है। यही किसान की बरबादी का असली कारण है। हाइब्रिड बीजों और रसायन के इस्तेमाल के बजाय तुलनात्मक रूप से कम लागत पर उपलब्ध देशज बीजों से किसान दोगुनी पैदावार उपजा सकता है, लेकिन उसके पास ज्ञान और तकनीक विकसित करने का साधन नहीं है, क्योंकि किसान शिक्षित नहीं है, फिर बहुराष्ट्रीय कंपनियां जो बीज बाजार में उतार रही हैं, उनसे भी किसानों को कड़ी चुनौती मिल रही है। जब हमारे यहां बहुराष्ट्रीय कंपनियों का प्रभाव नहीं था, तब सरकारें किसानों के देशज ज्ञान का महत्व समझती थीं और सरकारी जमीन पर महुआ, आम, पीपल और बरगद के पेड़ गरीब और किसान की आवश्यकता के अनुसार लगाए जाते थे, ताकि अकाल जैसी स्थिति में मनुष्य और जानवरों की भूख मिटाने का कुछ न कुछ इंतजाम बना रहे। लेकिन अब हम बहुराष्ट्रीय कंपनियों के जाल में फंसकर यूकिलिप्टस, विलायती बबूल और पॉपलर जैसे विदेशी पेड़ लगा रहे हैं, जो मनुष्य तथा प्रकृति, दोनों के साथ शत्रुतापूर्ण व्यवहार करते हैं। ये पेड़ छायादार और फलदार तो नहीं ही हैं, उलटे इनकी पत्तियों से तेजाब निकलता है, जो जमीन को ऊसर बनाता है। यूकिलिप्टस का एक पेड़ 24 घंटे में 425 लीटर पानी सोखता है। जैविक खेती हमारे पूर्वजों द्वारा खोजी और परखी गई देशज ज्ञान पर आधारित वह खेती है, जो हमें सीधे प्रकृति से जोड़ती है। लेकिन मैकाले की शिक्षा पद्धति और पश्चिमी मॉडल अपनाने के कारण आज हमें जैविक खेती पिछड़ी हुई लगती है। मटका खाद, सींग की खाद, बर्मी कंपोस्ट, जैव उत्पाद रसायन, भूमि शोधन, बीज शोधन इत्यादि का ज्ञान हमारे पूर्वजों को रहा है। हमारे पूर्वज हाट व्यवस्था को बहुत महत्व देते थे, जिसमें उत्पाद बिना बिचौलिये के उत्पादक से उपभोक्ता को प्राप्त होते थे। हाट व्यवस्था से सामाजिक मेल-जोल भी स्थापित होता था। पर पाश्चात्य संस्कृति का देश में अंधानुकरण करने के कारण आज हाट व्यवस्था भी दम तोड़ रही है। विश्व व्यापार संगठन के हस्तक्षेप के कारण अब तो हमारे किसानों को बीजों के मामले में भी गुलाम बनाया जा रहा है। उन पर ऐसे बीजों के इस्तेमाल का दबाव बनाया जा रहा है, जो मात्र एक बार ही प्रयोग होते हैं और जिसमें पानी तथा रासायनिक खाद अधिक लगता है। इससे जमीन ऊसर हो रही है। हमारे पूर्वजों को पर्यावरण, जल और वन संरक्षण में भी विशेष योग्यता हासिल थी। विभिन्न उपायों से वे इनकी रक्षा करते थे। जंगलों में रहनेवाले आदिवासी प्रसव के दौरान एक पेड़ की छाल का उपयोग करते हैं। छाल निकालने से पहले उस पेड़ को दाल-चावल का न्योता देते, फिर उसकी पूजा करते, बाद में मंत्रोच्चारण के साथ कुल्हाड़ी से एक बार में जितनी छाल निकल जाए, उतने का ही दवा के रूप में इस्तेमाल करते। लेकिन आज सरकारों का उद्देश्य जंगल की रक्षा करना नहीं, बल्कि जंगल को बेचना है। खेती-किसानी से जुड़े फैसले भी वातानुकूलित कमरों में बैठे लोग करते हैं। यदि यही योजनाएं किसानों के बीच किसी बरगद के पेड़ के नीचे बैठकर बनाई जाएं, जिनमें पारंपरिक कृषि और स्थानीय प्रौद्योगिकी के साथ ग्रामीण स्तर पर चारा पैदा करने और मवेशियों की स्थानीय नस्लें पैदा करने पर सार्थक विचार-विमर्श कर ठोस पहल की जाए, तो बुंदेलखंड के किसान और मजदूर आत्महत्या के लिए विवश नहीं होंगे। source : http://www.amarujala.com/Vichaar/VichaarDetail.aspx?nid=1705&tp=b&Secid=4&SubSecid=6 |
बर्बाद होता भारत
Saturday, September 17, 2011
देशज परंपराओं की विदाई
Wednesday, June 1, 2011
खेती के खतरनाक खरीद
Source : http://in.jagran.yahoo.com/epaper/index.php?location=49&edition=2011-06-01&pageno=8#id=111712860472008824_49_2011-06-01
996 में विश्व बैंक के तत्कालीन उपाध्यक्ष और अंतरराष्ट्रीय कृषि अनुसंधान सलाहकार समूह के अध्यक्ष डॉ. इस्माइल सेरेगेल्डिन ने एक बयान जारी किया। उन्होंने कहा कि विश्व बैंक का आकलन है कि अगले बीस वर्षो में भारत में ग्रामीण क्षेत्र से शहरी क्षेत्रों में विस्थापन करने वालों की संख्या फ्रांस, ब्रिटेन और जर्मनी की कुल आबादी के दोगुने से भी अधिक हो जाएगी। ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी की कुल आबादी करीब 20 करोड़ है। इस प्रकार विश्व बैंक का मानना था कि 2015 तक भारत में 40 करोड़ लोग गांवों से शहरों में चले जाएंगे। मैंने समझा कि यह एक चेतावनी है, किंतु जब मैंने इसके बाद की विश्व बैंक की अन्य रपटों का अध्ययन किया तो मुझे उसके असल इरादों का भान हुआ। दरअसल, विश्व बैंक इस प्रक्रिया को रोकना नहीं, तेज करना चाहता था। 2008 में जारी विश्व विकास रिपोर्ट में विश्व बैंक ने स्पष्ट रूप से उल्लेख किया कि भारत में भूमि की किरायेदारी शुरू होनी चाहिए। इसके अनुसार, भूमि बहुत ही महत्वपूर्ण संसाधन है, किंतु यह ऐसे लोगों (किसानों) के हाथों में केंद्रित है, जो इसका कुशलतापूर्वक उपयोग नहीं करते। विश्व बैंक का कहना है कि इन लोगों को इन संसाधनों से बेदखल कर देना चाहिए और भूमि उन लोगों को सौंप देनी चाहिए जो इसका कुशलता से उपयोग कर सकें और वास्तव में ये लोग कॉरपोरेट क्षेत्र के ही हो सकते हैं। किसानों को उनकी जमीन से बेदखल करने की यह प्रक्रिया लंबे समय से चल रही है और अब अपने चरम पर पहुंच गई है। जिस तेज रफ्तार से सरकार भूमि अधिग्रहण के माध्यम से किसानों को जमीन से बेदखल कर रही है इससे विश्व के सामने खाद्य सुरक्षा का संकट गहराता जा रहा है। दुर्भाग्य से हमें यह समझाने की कोशिश की जाती है कि खाद्य उत्पादन के मोर्चे पर घबराने वाली कोई बात नहीं है, क्योंकि कॉरपोरेट जगत खाद्यान्न का कुशलतापूर्वक उत्पादन कर सकता है। मुख्यत: इसी मंशा से 1995 में विश्व व्यापार संगठन के अस्तित्व में आने के बाद से विकासशील देशों में धनी देशों की ओर से अनुदानित और सस्ती दरों पर खाद्यान्न के आयात की बाढ़ आ गई है। इसी प्रकार मुक्त व्यापार समझौतों के नाम पर द्विपक्षीय समझौते और क्षेत्रीय व्यापार संधियों के माध्यम से विकासशील देशों में औद्योगिकीय उत्पादित खाद्यान्न और खाद्य उत्पादों के लिए बाजार विकसित किया जा रहा है। इस प्रकार भूमि और जीविकोपार्जन केंद्रीय मुद्दों में तब्दील हो चुके हैं। ग्रामीण भारत से 40 करोड़ लोगों के संभावित विस्थापन से भारत अब तक विश्व में हुए सबसे बड़े पर्यावरणीय विस्थापन का साक्षी बन जाएगा। यह अवधारणा केवल भारत तक ही सीमित नहीं रहेगी, बल्कि एक बड़ा क्षेत्र इसकी चपेट में आ जाएगा। मेरा अनुमान है कि आने वाले वर्षो में भारत और चीन के 80 करोड़ लोग गांवों से शहरों की ओर कूच कर जाएंगे। जिन करोड़ों लोगों को विस्थापन के लिए मजबूर किया जा रहा है उन्हें कृषि शरणार्थी कहा जा सकता है। क्या हम समझ सकते हैं कि विश्व किस दिशा में जा रहा है? क्या हम अनुमान लगा सकते हैं कि इस भयानक रफ्तार से विस्थापन के कारण कितने गंभीर सामाजिक-आर्थिक और साथ ही राजनीतिक संकट खड़े हो सकते हैं? इसके बजाय हमें बताया जा रहा है कि बढ़ता शहरीकरण वैश्वीकरण और आर्थिक संवृद्धि का अपरिहार्य परिणाम है। हमें बार-बार बताया जा रहा है कि वैश्वीकरण ने राष्ट्रीय सीमाओं का अंत कर दिया है। यह सुनने में अच्छा लग सकता है, किंतु मुझे लगता है कि आने वाले कुछ बरसों में राष्ट्रों की सीमाएं धुंधली होने के बजाए और गहरी व लंबी हो जाएंगी। विकासशील देशों में जिस रफ्तार से और जिस हद तक भूमि हड़पने का सिलसिला चल रहा है वह चिंता का विषय है। उदाहरण के लिए एक भारतीय कंपनी ने अफ्रीका और लैटिन अमेरिका में तीन हजार वर्ग किलोमीटर भूमि हासिल कर ली है। यह क्षेत्र बहुत से छोटे देशों के क्षेत्रफल से भी अधिक है। एक दिन इस भूमि के मालिक झंडा फहराकर यह घोषणा कर सकते हैं कि यह एक स्वतंत्र राष्ट्र है। आप इस संभावना को खारिज कर सकते हैं, किंतु हमें अधिक सावधानी से काम लेना होगा। देर-सबेर समाज कृषि, खाद्य सुरक्षा और भूमि संसाधन की सच्चाई से रूबरू होगा। जितना जल्द यह होगा, उतना ही बेहतर होगा। समस्या यह है कि हम इस तरह के गंभीर मुद्दों पर किसी खास नजरिये और परिप्रेक्ष्य में ही विचार करते हैं, जबकि जमीनी सच्चाई यह है कि ये मुद्दे बहुआयामी और बहुकोणीय होते हैं। जब तक हम ऐसा करने में सफल नहीं होंगे तब तक हम सही संदर्भ में विशिष्ट विचार प्रस्तुत करने में सफल नहीं होंगे। मैं जिन मंचों पर जाता हूं उनमें यह व्यापक सोच नदारद नजर आती है। शायद यही कारण है कि हम अंतरदृष्टि और सार्थकता के साथ असल मुद्दों से भटक जाते हैं। कृषि-व्यापार से यह प्रतीत होता है कि भारत और चीन जैसे देशों को अन्य देशों में अधिक खाद्य उत्पादन करना चाहिए। घरेलू आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भारत और चीन द्वारा विदेशों में भूमि की खरीदारी को न्यायोचित ठहराया जा रहा है। अधिक खाद्यान्न उत्पादन की जरूरत के मद्देनजर भारी-भरकम कृषि भूमि की खरीदारी की वकालत की जा रही है। आज लैटिन अमेरिका, अफ्रीका और एशिया में शायद ही कोई देश हो जिसकी भूमि न हड़पी जा रही हो। भुखमरी और कुपोषण के शिकार इथियोपिया में आठ हजार से अधिक कंपनियां जमीन हथियाने के प्रयास में हैं। यह देश पहले ही 2000 कंपनियों को 27 लाख हेक्टेयर भूमि आवंटित कर चुका है, जिसमें भारत की कंपनियां भी शामिल हैं। ये कंपनियां इथियोपिया के लिए खाद्यान्न का उत्पादन नहीं करेंगी, बल्कि इसका निर्यात करेंगी। यहां से उत्पादित खाद्यान्न की पहली खेप सऊदी अरब भेजी भी जा चुकी है, जबकि इस देश की जनता दाने-दाने की मोहताज है। यह मुझे इतिहास के काले अध्याय की याद दिलाता है। कुछ दशक पहले आयरलैंड के अकाल की 150वीं वर्षगांठ के आयोजन में मैंने भाग लिया। यह अकाल 19वीं सदी के मध्य में पड़ा था। सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए शहर के मेयर ने कहा था कि मैं हैरान हूं कि उस समय कितने बर्बर लोग थे। लोग भूख से मर रहे थे और फिर भी खाद्यान्न के बोरे के बोरे इंग्लैंड भेजे जा रहे थे। मुझे नहीं लगता कि समाज की इस बर्बर प्रकृति में कोई अंतर आया है। आने वाले समय में हम और भी बर्बर समाज में रहेंगे। इथियोपिया में जिस तरह भूमि हड़पी जा रही है, यह बर्बरता से कम नहीं है। देश में लोग भूख से मर रहे हैं और कंपनियों के पास खाद्यान्न के निर्यात की कानूनी अनुमति है। भविष्य में ऐसे और भी उदाहरण देखने को मिलेंगे। (लेखक देवेन्द्र शर्मा , कृषि एवं खाद्य नीतियों के विश्लेषक हैं)
996 में विश्व बैंक के तत्कालीन उपाध्यक्ष और अंतरराष्ट्रीय कृषि अनुसंधान सलाहकार समूह के अध्यक्ष डॉ. इस्माइल सेरेगेल्डिन ने एक बयान जारी किया। उन्होंने कहा कि विश्व बैंक का आकलन है कि अगले बीस वर्षो में भारत में ग्रामीण क्षेत्र से शहरी क्षेत्रों में विस्थापन करने वालों की संख्या फ्रांस, ब्रिटेन और जर्मनी की कुल आबादी के दोगुने से भी अधिक हो जाएगी। ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी की कुल आबादी करीब 20 करोड़ है। इस प्रकार विश्व बैंक का मानना था कि 2015 तक भारत में 40 करोड़ लोग गांवों से शहरों में चले जाएंगे। मैंने समझा कि यह एक चेतावनी है, किंतु जब मैंने इसके बाद की विश्व बैंक की अन्य रपटों का अध्ययन किया तो मुझे उसके असल इरादों का भान हुआ। दरअसल, विश्व बैंक इस प्रक्रिया को रोकना नहीं, तेज करना चाहता था। 2008 में जारी विश्व विकास रिपोर्ट में विश्व बैंक ने स्पष्ट रूप से उल्लेख किया कि भारत में भूमि की किरायेदारी शुरू होनी चाहिए। इसके अनुसार, भूमि बहुत ही महत्वपूर्ण संसाधन है, किंतु यह ऐसे लोगों (किसानों) के हाथों में केंद्रित है, जो इसका कुशलतापूर्वक उपयोग नहीं करते। विश्व बैंक का कहना है कि इन लोगों को इन संसाधनों से बेदखल कर देना चाहिए और भूमि उन लोगों को सौंप देनी चाहिए जो इसका कुशलता से उपयोग कर सकें और वास्तव में ये लोग कॉरपोरेट क्षेत्र के ही हो सकते हैं। किसानों को उनकी जमीन से बेदखल करने की यह प्रक्रिया लंबे समय से चल रही है और अब अपने चरम पर पहुंच गई है। जिस तेज रफ्तार से सरकार भूमि अधिग्रहण के माध्यम से किसानों को जमीन से बेदखल कर रही है इससे विश्व के सामने खाद्य सुरक्षा का संकट गहराता जा रहा है। दुर्भाग्य से हमें यह समझाने की कोशिश की जाती है कि खाद्य उत्पादन के मोर्चे पर घबराने वाली कोई बात नहीं है, क्योंकि कॉरपोरेट जगत खाद्यान्न का कुशलतापूर्वक उत्पादन कर सकता है। मुख्यत: इसी मंशा से 1995 में विश्व व्यापार संगठन के अस्तित्व में आने के बाद से विकासशील देशों में धनी देशों की ओर से अनुदानित और सस्ती दरों पर खाद्यान्न के आयात की बाढ़ आ गई है। इसी प्रकार मुक्त व्यापार समझौतों के नाम पर द्विपक्षीय समझौते और क्षेत्रीय व्यापार संधियों के माध्यम से विकासशील देशों में औद्योगिकीय उत्पादित खाद्यान्न और खाद्य उत्पादों के लिए बाजार विकसित किया जा रहा है। इस प्रकार भूमि और जीविकोपार्जन केंद्रीय मुद्दों में तब्दील हो चुके हैं। ग्रामीण भारत से 40 करोड़ लोगों के संभावित विस्थापन से भारत अब तक विश्व में हुए सबसे बड़े पर्यावरणीय विस्थापन का साक्षी बन जाएगा। यह अवधारणा केवल भारत तक ही सीमित नहीं रहेगी, बल्कि एक बड़ा क्षेत्र इसकी चपेट में आ जाएगा। मेरा अनुमान है कि आने वाले वर्षो में भारत और चीन के 80 करोड़ लोग गांवों से शहरों की ओर कूच कर जाएंगे। जिन करोड़ों लोगों को विस्थापन के लिए मजबूर किया जा रहा है उन्हें कृषि शरणार्थी कहा जा सकता है। क्या हम समझ सकते हैं कि विश्व किस दिशा में जा रहा है? क्या हम अनुमान लगा सकते हैं कि इस भयानक रफ्तार से विस्थापन के कारण कितने गंभीर सामाजिक-आर्थिक और साथ ही राजनीतिक संकट खड़े हो सकते हैं? इसके बजाय हमें बताया जा रहा है कि बढ़ता शहरीकरण वैश्वीकरण और आर्थिक संवृद्धि का अपरिहार्य परिणाम है। हमें बार-बार बताया जा रहा है कि वैश्वीकरण ने राष्ट्रीय सीमाओं का अंत कर दिया है। यह सुनने में अच्छा लग सकता है, किंतु मुझे लगता है कि आने वाले कुछ बरसों में राष्ट्रों की सीमाएं धुंधली होने के बजाए और गहरी व लंबी हो जाएंगी। विकासशील देशों में जिस रफ्तार से और जिस हद तक भूमि हड़पने का सिलसिला चल रहा है वह चिंता का विषय है। उदाहरण के लिए एक भारतीय कंपनी ने अफ्रीका और लैटिन अमेरिका में तीन हजार वर्ग किलोमीटर भूमि हासिल कर ली है। यह क्षेत्र बहुत से छोटे देशों के क्षेत्रफल से भी अधिक है। एक दिन इस भूमि के मालिक झंडा फहराकर यह घोषणा कर सकते हैं कि यह एक स्वतंत्र राष्ट्र है। आप इस संभावना को खारिज कर सकते हैं, किंतु हमें अधिक सावधानी से काम लेना होगा। देर-सबेर समाज कृषि, खाद्य सुरक्षा और भूमि संसाधन की सच्चाई से रूबरू होगा। जितना जल्द यह होगा, उतना ही बेहतर होगा। समस्या यह है कि हम इस तरह के गंभीर मुद्दों पर किसी खास नजरिये और परिप्रेक्ष्य में ही विचार करते हैं, जबकि जमीनी सच्चाई यह है कि ये मुद्दे बहुआयामी और बहुकोणीय होते हैं। जब तक हम ऐसा करने में सफल नहीं होंगे तब तक हम सही संदर्भ में विशिष्ट विचार प्रस्तुत करने में सफल नहीं होंगे। मैं जिन मंचों पर जाता हूं उनमें यह व्यापक सोच नदारद नजर आती है। शायद यही कारण है कि हम अंतरदृष्टि और सार्थकता के साथ असल मुद्दों से भटक जाते हैं। कृषि-व्यापार से यह प्रतीत होता है कि भारत और चीन जैसे देशों को अन्य देशों में अधिक खाद्य उत्पादन करना चाहिए। घरेलू आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भारत और चीन द्वारा विदेशों में भूमि की खरीदारी को न्यायोचित ठहराया जा रहा है। अधिक खाद्यान्न उत्पादन की जरूरत के मद्देनजर भारी-भरकम कृषि भूमि की खरीदारी की वकालत की जा रही है। आज लैटिन अमेरिका, अफ्रीका और एशिया में शायद ही कोई देश हो जिसकी भूमि न हड़पी जा रही हो। भुखमरी और कुपोषण के शिकार इथियोपिया में आठ हजार से अधिक कंपनियां जमीन हथियाने के प्रयास में हैं। यह देश पहले ही 2000 कंपनियों को 27 लाख हेक्टेयर भूमि आवंटित कर चुका है, जिसमें भारत की कंपनियां भी शामिल हैं। ये कंपनियां इथियोपिया के लिए खाद्यान्न का उत्पादन नहीं करेंगी, बल्कि इसका निर्यात करेंगी। यहां से उत्पादित खाद्यान्न की पहली खेप सऊदी अरब भेजी भी जा चुकी है, जबकि इस देश की जनता दाने-दाने की मोहताज है। यह मुझे इतिहास के काले अध्याय की याद दिलाता है। कुछ दशक पहले आयरलैंड के अकाल की 150वीं वर्षगांठ के आयोजन में मैंने भाग लिया। यह अकाल 19वीं सदी के मध्य में पड़ा था। सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए शहर के मेयर ने कहा था कि मैं हैरान हूं कि उस समय कितने बर्बर लोग थे। लोग भूख से मर रहे थे और फिर भी खाद्यान्न के बोरे के बोरे इंग्लैंड भेजे जा रहे थे। मुझे नहीं लगता कि समाज की इस बर्बर प्रकृति में कोई अंतर आया है। आने वाले समय में हम और भी बर्बर समाज में रहेंगे। इथियोपिया में जिस तरह भूमि हड़पी जा रही है, यह बर्बरता से कम नहीं है। देश में लोग भूख से मर रहे हैं और कंपनियों के पास खाद्यान्न के निर्यात की कानूनी अनुमति है। भविष्य में ऐसे और भी उदाहरण देखने को मिलेंगे। (लेखक देवेन्द्र शर्मा , कृषि एवं खाद्य नीतियों के विश्लेषक हैं)
Tuesday, January 18, 2011
खुशहाल पंजाब बर्बादी के ओर
Source : http://www.tehelka.com/story_main47.asp?filename=Ne021010Cover_story.asp
The Poverty of Plenty
It’s not stones. It’s not land. Something else is eating away India’s most robust state. VIJAY SIMHA tracks the unnoticed story of the year
BY VIJAY SIMHA
PHOTOGRAPHS BY SHAILENDRA PANDEY
PHOTOGRAPHS BY SHAILENDRA PANDEY
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THE 25 crore man stepped in like a thief, eyes wary, searching for a sign that he must run. Jagbeer Singh. Farmer. Bus conductor. Father. Heroin smuggler. Jailbird. Nobody. After months of being a recluse, Jagbeer, one-time shining hope for friends and family, emerged into a Punjab he didn’t like. When he was caught with 25 kilos of heroin in 1997, worth Rs. 25 crore in the international market, Jagbeer became an instant celeb: his was the biggest heroin haul then. “They used to come to see what a Rs. 25 crore man looked like,” he says. Now, when he’s out after 12 years, only two kinds are interested. The sleuths, who come every fortnight to see if Jagbeer has anything to snitch on, and the peddlers, waiting to see if he is game for another shot. “I stay in and wonder how it happened to me. When I went into jail, there were a dozen drug offenders. When I was released, there were 65. There are a thousand peddlers in Punjab today,” he says. He doesn’t know it yet, but experts have begun to put an expiry date on Punjab, once the sentinel state of India. And it’s not just drugs that’s doing it.
I AM TOO scared,” says Jagbeer. He has a
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